पूछे तिरंगा..........
विगत-रात्रि में खुश होकर मैं 'देशभक्ति-रस' में खोई थी -
कल अपना 'गणतंत्र-दिवस' है, इसी गर्व से भर - सोई थी .
तभी अचानक खिड़की काँपी, तेज हवा का झोंका आया -
... वहाँ 'तिरंगा' दिखा मुझे, बोला -तुमने कुछ धोखा खाया . .
मेरे कुछ हैं प्रश्न , ज़रा तुम पहले उनके उत्तर देना ,
अगर मिले संतुष्टि तुम्हें, तो तुम जी भर कर खुश हो लेना --
''पहले-पहल कल्पना जिनने मेरे रंग-रूप की- की थी -
ऊपर 'भगवा' रंग दिया था, त्याग-भावना उसे कही थी .
त्याग और बलिदान सभी ने देश-प्रेम में डूब किये थे
तभी सार्थक था वह भगवा रंग कि जिसमें सभी जिए थे .
आज कौन त्यागी-बलिदानी देशप्रेम में रंगा हुआ है ?
धन-लोलुप , पाखंडी सब हैं - लालच सब में भरा हुआ है |
बीच शांति-मय 'श्वेत' - मध्य में 'चक्र' - देश की 'संरचना' का ,
बोलो शांति कहाँ है ? हा-हा कार मचा है प्रवंचना का .
'हरा' रंग खुशियों का नीचे दिया - बताओ खुशी कहाँ है ?
भूख, गरीबी, अत्याचार, घूस और चोरी भरी जहाँ है ?
भ्रष्टाचार, दौड़ कुर्सी की, कला-धन, विदेश में खाते -
बने सफ़ेद-पोश अंधे जो चीन्ह-चीन्ह रेवड़ियाँ बाँटें .
इन बातों के उत्तर मुझको दो तो मैं झूमूं-लहराऊँ -
बोलो ऐसे में कैसे मैं लहरा-लहरा कर फहराऊं ?
फ़र्ज़ समझ कर चढ़ जाता हूँ, नियत जगह पर-नियत समय पर,
सुन लेता हूँ ''राष्ट्र-गीत'', कुछ गाने,नाच, झांकियां पथ पर .
क्या देती मैं उत्तर इन बातों के ,मेरे ''राष्ट्र-ध्वज'' को ?
आँखें नम थीं , ढूँढ रहीं थीं - ''सोने की चिड़िया'' भारत को !
और खुल गई नींद तभी -क्या सचमुच सपने में खोई थी ?
सपने में 'सच' बोल रहा था , आँखें भी मेरी रोई थीं |
फिर सोचा - अब करें सभी प्रण - मिलकर भ्रष्टाचार मिटाएं ,
उसी गर्व से ,उसी खुशी से ''राष्ट्र-पताका'' हम फहराएं ||
--- ''जय भारत-जय देश !!''
* * *
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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विगत-रात्रि में खुश होकर मैं 'देशभक्ति-रस' में खोई थी -
कल अपना 'गणतंत्र-दिवस' है, इसी गर्व से भर - सोई थी .
तभी अचानक खिड़की काँपी, तेज हवा का झोंका आया -
... वहाँ 'तिरंगा' दिखा मुझे, बोला -तुमने कुछ धोखा खाया . .
मेरे कुछ हैं प्रश्न , ज़रा तुम पहले उनके उत्तर देना ,
अगर मिले संतुष्टि तुम्हें, तो तुम जी भर कर खुश हो लेना --
''पहले-पहल कल्पना जिनने मेरे रंग-रूप की- की थी -
ऊपर 'भगवा' रंग दिया था, त्याग-भावना उसे कही थी .
त्याग और बलिदान सभी ने देश-प्रेम में डूब किये थे
तभी सार्थक था वह भगवा रंग कि जिसमें सभी जिए थे .
आज कौन त्यागी-बलिदानी देशप्रेम में रंगा हुआ है ?
धन-लोलुप , पाखंडी सब हैं - लालच सब में भरा हुआ है |
बीच शांति-मय 'श्वेत' - मध्य में 'चक्र' - देश की 'संरचना' का ,
बोलो शांति कहाँ है ? हा-हा कार मचा है प्रवंचना का .
'हरा' रंग खुशियों का नीचे दिया - बताओ खुशी कहाँ है ?
भूख, गरीबी, अत्याचार, घूस और चोरी भरी जहाँ है ?
भ्रष्टाचार, दौड़ कुर्सी की, कला-धन, विदेश में खाते -
बने सफ़ेद-पोश अंधे जो चीन्ह-चीन्ह रेवड़ियाँ बाँटें .
इन बातों के उत्तर मुझको दो तो मैं झूमूं-लहराऊँ -
बोलो ऐसे में कैसे मैं लहरा-लहरा कर फहराऊं ?
फ़र्ज़ समझ कर चढ़ जाता हूँ, नियत जगह पर-नियत समय पर,
सुन लेता हूँ ''राष्ट्र-गीत'', कुछ गाने,नाच, झांकियां पथ पर .
क्या देती मैं उत्तर इन बातों के ,मेरे ''राष्ट्र-ध्वज'' को ?
आँखें नम थीं , ढूँढ रहीं थीं - ''सोने की चिड़िया'' भारत को !
और खुल गई नींद तभी -क्या सचमुच सपने में खोई थी ?
सपने में 'सच' बोल रहा था , आँखें भी मेरी रोई थीं |
फिर सोचा - अब करें सभी प्रण - मिलकर भ्रष्टाचार मिटाएं ,
उसी गर्व से ,उसी खुशी से ''राष्ट्र-पताका'' हम फहराएं ||
--- ''जय भारत-जय देश !!''
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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