'' मन तुम स्वच्छंद हो गए ''
* पहले सबने तुमको फूल बने देखा , काँटों-कलियों का रखा तुमने लेखा ;
दिन-भर जब धूप पड़ी , रूप तुम्हारा बिखरा - उड़ कर सुगंध हो गए --- मन तुम ...........
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* पूनम को देख तुम्हें थे सब दीवाने , तारे छुपते फिरते कर के बहाने ;
बढ़ती तिथियों ने , जो तुमको घटाया - तो 'मावस के चंद हो गए --- मन तुम ............
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* नीले आकाश तले - पंछी से उड़ते , गतिमय दुनियाँ खुद मनमानी ही गढ़ते ;
पँख जब थके - आँधी ने डेरा डाला , तो रस्सी बन फंद हो गए --- मन तुम ............
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* अल्हड़-चँचल पगली नदिया से तुम थे , जग को भूले अपनी लहरों में गुम थे ;
झेला जब राह के थपेड़ों-विपदाओं को - अड़े और बंध हो गए --- मन तुम ............
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* सपनों की छोटी सी बगिया लगाई , सोचा - हौले से आएगी पुरवाई ;
पेड़ों ने छाँह न दी , पुरवा भी बह न सकी - बौराए अन्ध हो गए --- मन तुम ..........
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* मन को चन्दन पाया- बाग इक लगाया , रोपा, सींचा ,पाला - नभ तक बढ़ाया ;
विषधर जब लिपटे उस बगिया के पेड़ों से - घिस कर तुम गंध हो गए --- मन तुम ......
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* सूरज की किरणों से कमल बन खिले थे , रूप-रंग-रस-सुगंध सब तुम्हें मिले थे ;
रवि ने मुख मोड़ा - पंखुरियाँ भी बंद हुईं - छुपकर मकरन्द हो गए --- मन तुम ...........
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* तिनका-तिनका चुनकर नीड़ इक बनाया , आँधी-पानी-गर्मी-ठंड से बचाया ;
लूट न ले जग बैरी , अपने बसाए पर - तुम खुद प्रतिबन्ध हो गए --- मन तुम .............
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* मन की बातें - मन से उठकर लहराईं , स्वर बनकर निकलीं तो रूप नया पाईं ;
शब्दों ने जाल बुना तानों-बानों का , तो बुनकर तुम छंद हो गए ---मन तुम ..............
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मन तुम स्वच्छंद हो गए --- मन तुम स्वच्छंद हो गए .............||
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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* मन को चन्दन पाया- बाग इक लगाया , रोपा, सींचा ,पाला - नभ तक बढ़ाया ;
ReplyDeleteविषधर जब लिपटे उस बगिया के पेड़ों से - घिस कर तुम गंध हो गए --- मन तुम ......
...बहुत खूब! भावों की लाज़वाब अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर
मन को चन्दन पाया- बाग इक लगाया , रोपा, सींचा ,पाला - नभ तक बढ़ाया ;
ReplyDeleteविषधर जब लिपटे उस बगिया के पेड़ों से - घिस कर तुम गंध हो गए ---
.....बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..शब्दों और भावों का सुन्दर संयोजन...आभार
मन जब अपने अच्छे प्रयासों का प्रतिफल अच्छा नहीं पाता तब कुंठित हो कर कभी तो विद्रोह कर बैठता है और कभी स्वयं संकुचित हो कर अंतर्मुखी हो जाता है,किन्तु उस समय भी उसकी मानस-यात्रा चलती रहती है और वह सकारात्मक रूप लेकर यथासंभव उपकार के पथ पर चल पड़ता है,और तथाकथित संतोष की अनुभूति कर लेता है |--> प्रतिभा.
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