हे कृष्ण ......!!
इस 'विनाशी-देह' के अमरत्व का है मोह कैसा ?
किन्तु , ''आत्मा अमर होती'' - ज्ञान है , तो छोह कैसा ??
हम चिरंतन मोह के भ्रम-जाल में फँसते रहे हैं ,
नेष्य किन्तु सुखद , क्षणिक-उपलब्धि पर हँसते रहे हैं ;
मन- विकारी भावनाओं का बनाया गेह हमने ,
क्रोध , माया , मोह , लालच - सर्प बन डसते रहे हैं |
स्वयं का ही दुःख और सुख जिया , तो फिर ज्ञान कैसा ?
स्वार्थ-प्रेरित किया हो या दम्भ-वश , तो दान कैसा ??
इस विनाशी देह के - - - - - - - - - -
स्वयं से बाहर निकल कर , 'हम' - कभी बढ़ने न पाए ,
कुंद हो घुटते रहे , सीढ़ी कभी चढ़ने न पाए ;
जब कभी सोचा - किया केवल ही निज-उद्धार हमने ,
जगत के उपकार की पुस्तक - कभी पढ़ने न पाए |
सुना , चाहा - पर निभाया नहीं , तो संकल्प कैसा ?
'नियम तो होते नियम' - कुछ ढील का विकल्प कैसा ??
इस विनाशी देह के - - - - - - - - - -
स्वार्थ , सुविधा देख कर , कुछ नियम अपने ही बनाए ,
क्या करें जब लोभ-वश , उन पर स्वयं चलने न पाए ;
दोष या सन्दर्भ दें सबको , तो - निज को छल रहे हैं ,
चाह कर भी रिक्त साँचे में कभी ढलने न पाए |
नित्य असमंजस का झूला , अधर में आधार कैसा ?
हृदय कम्पित , ठौर अस्थिर , बढ़ न पाते , पार कैसा ??
इस विनाशी देह के - - - - - - - - - - - -
काठ सा तन , हृदय - तम से भरा , केवल है निराशा ,
खोखला मन और जीवन , नहीं कोई आज आशा ;
संशयों के बीच जीना , अविश्वासी दायरों में ,
घृणा और अपमान जब कहती सभी नयनों की भाषा |
जग दिखावा करें कब तक , घृणा में सम्मान कैसा ?
हों मुखौटों पर मुखौटे , सत्य का तब भान कैसा ??
इस विनाशी देह के - - - - - - - - - - - -
प्रात की बेला कभी आती - वचन झूठे समेटे ,
रेत ज्यों चमके स्वयं , भ्रम-जाल पानी का लपेटे ;
साँझ तक भ्रम पाल - वचनों का , यदपि हम दौड़ते हैं ,
और फिर नित सूर्य डूबे - कालिमा पथ पर उलेटे |
यह नियति है अंत तक यदि - फिर करें संताप कैसा ?
वचन टूटें , आस टूटें , नित्य पश्चाताप कैसा ??
इस विनाशी देह के - - - - - - - - - - -
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना