* * *
प्रकृति हमारी चिर-सखी , मानव-प्रकृति बताय ;
वृक्ष हमारे मित्र हैं , जीवन पाठ पढ़ायँ . . . ||
* * *
बीज धरा में पल रहा , प्रकृति स्वयं पनपाय ;
अंकुर फूटे - जन्म ले , धरती माँ बन जाय . . . ||
* * *
कोमल किसलय जब बढ़ें , नित हरीतिमा पायं ;
पके-पात पीले पड़ें , आखिर में झड़ जायं . . . ||
* * *
बौर खिलें , अमियाँ लगें ,समय पायं - गदरायँ ;
आम पकें - तब झड़ चलें , जीवन-गति समझायं . . . ||
* * *
सूखी गुठली आम की , मिट्टी-पानी पाय ;
प्राण-वायु , पर्यावरण , छाया , फल दे जाय . . . ||
* * *
पतझड़ में पत्ते झड़ें , फिर वसंत आ जाय ;
जीवन का यह चक्र है -सुख-दुःख आकर जायं . . . ||
* * *
बूढ़े बरगद की जटा , जब नीचे झुक जाँय ;
जैसे पोते की तरफ - दादा हाथ बढ़ायँ . . . ||
* * *
******************************************************************
सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
******************************************************************