अनुभूति... चेतना... संकल्प......
सूरज निकल आया है, दिन भी चढ़ आया है -
नींद से जाग जाती है, एक सोई हुई लड़की - -नींद खुल जाने पर, घड़ी पर नज़र जाने पर -
ना ही ली उसने आज ज़ोरों की अंगड़ाई ,
ना ही लगाई कोई खिलखिलाती सी आवाज़ ,
अरे , कौन-कौन उठ गया भाई ? . . . . . . . .या
ओ मम्मी , चाय बन गई क्या ? . . . . . . . . या
छोटू उठ , आलसी कहीं का !!
नहीं , ऐसा कुछ भी नहीं , आज ऐसा कुछ भी नहीं ;
कम्बल हटा कर , कुछ इधर-उधर देख कर -
धीरे से अपने बिस्तर से उठ जाती है -
एक जागी हुई लड़की - - - - - - - - - - - -
धीरे से ब्रश, फिर चाय चुपचाप पीकर ,
काँपते से हाथों से वह पेपर उठाती है.....
आशंकित भाव लिए घबराई आँखों में ,
धीरे-धीरे पेपर के पन्ने पलटाती है ,
खबरों को पढ़ कर फिर अपना घर देखती है ,
मन में कुछ बुद-बुदा कर आँखें बंद करती है -
भाई और बहन को कुछ समझाइश देकर ,
गले से लगा लेती है - गले से लगा लेती है
एक डरी हुई लड़की - - - - - - - - - - - -
फिर घर के कुछ कामों में, रसोई पकवानों में ,
जाकर वह माँ का कुछ हाथ भी बटाती है ,
पापा को बुला कर वह खाना भी खिलाती है ,
फिर तैयार होकर वह गम-सुम सी आती है ,
थोड़ा सा प्लेट में परस कर कुछ खाती है ,
डब्बा और पर्स लेकर माँ के पास जाती है ,
सहमी सी आँखों में जाने की अनुमति का
प्रश्न लिए खड़ी है, अपनी उम्र से वो बड़ी है ,
माँ की आँखों में भय देख कर समझाती है,
एक चुप-चुप सी लड़की - - - - - - - - - - - -
अपने मोहल्ले में , अपनी ही गलियों में ,
चलते ही चलते जब मोड़ आ जाता है ,
मोड़ के उस कोने से - पलट कर वह देखती है -
घर की ओर..........घर की ओर
अपनी उस माँ को - जो खड़ी है दरवाज़े पर
हाथ जोड़े - अब तक , क्यूँकि -
रोज़ की तरह ही कुछ डर भी पल रहे हैं ,
जाती हुई बेटी का मंगल मनाने को -
होंठ हिल रहे हैं............होंठ हिल रहे हैं
घर से अभी आफ़िस तक जाने का मंगल !
शाम को फिर सकुशल लौट आने मंगल !!
फिर से वह हाथ हिला माँ से बिदा लेती है -
मुड़ती हुई लड़की - - - - - - - - -
सोच वेग लेती है , चाल तेज होती है ,
अभी उसे जाकर फिर लाइन में लगना है ,
बस में भी चढ़ना है , भीड़ से गुज़रना है ,
आफ़िस में जाकर हर काम से निपटना है
और फिर ऐसे ही शाम को अकेले ही ,
लाइन में , बस में और भीड़ में गुज़रना है ,
सम्मान को बचा कर घर लौट कर पहुँचना है ,
ऐसे ही विचारों में डूबती-उतराती ,
चलती चली जाती है , चलती चली जाती है -
कुछ सोचती सी लड़की - - - - - - - - - - -
कि इन सबसे छुटकारा पाना नहीं है ,
जीवन भर मुझको तो करना यही है ,
बड़ी मंहगाई है......... बड़ी मंहगाई है ,
''पापा'' बिचारों की अकेले की कमाई है ,
घर भी तो चलाना है , मुझे भी कमाना है ,
अपने छोटे भाई और बहन को पढ़ाना है ,
''मम्मी'' की दलीलें और कारण कुछ अपने हैं ,
मेरी आँखों में भी डरे हुए सपने हैं ,
जिन्हें पूरे करना है ,दुनियां में रहना है ,
ऐसी बातों में घिरी , चिंता विपदा से डरी -
आगे बढती जाती सहमी सी लड़की - - - - - - - - -
और फिर उसकी भी चाल तेज हो गई ,
आँखें भी चमक उठीं , मुट्ठियाँ भी तन गईं ,
दाँतों को भी भींचा , चहरे पे एक तेज उठा ,
शक्ति को जगाया और खुद संकल्प बन गई -
डर कर या दब कर अब जीवन नहीं जीना है ,
पाप खतम करना है , ज़हर नहीं पीना है ,
दुनियां के फंदों का , पातकी दरिंदों का -
सामना ही करना है , पापियों से लड़ना है
हिम्मत बढ़ाऊँगी , तभी जीत पाऊँगी ,
आज अब अकेली ही आवाज़ एक उठाऊँगी ,
तभी मेरे जैसी उन लाखों - करोड़ों का ,
साथ पा जाऊँगी , आगे पग बढ़ाऊँगी ,
पापियों-दरिंदों को सज़ा दिला पाऊँगी ,
आगे ना हो ऐसा , ऐसे नियम बना पाऊँगी ,
मेरे जैसी हर-एक लड़की को दुनियाँ में -
शान और सम्मान का जीवन दिला पाऊँगी !!
देखी संकल्प लेकर बढ़ती हुई लड़की - - - - - - - !!
देखी संकल्प लेकर - बढ़ती हुई लड़की - - - - - - - !!
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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