घर सूना लागे............
( बिटिया की बिदा के कुछ दिन बाद, उसकी याद में प्रतीक्षा करती माँ........)
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना |
चहक-चहक, फुदक-फुदक सबको जगाती ;
करती किलोल कभी छुप - चुप हो जाती ,
फिर थोड़ी देर न मैं कुछ आहट पाती ;
खलता था तेरा उतना सा चुप रहना -घर सूना लागे , सूना लागे अँगना.........
सूना है झूला और सूनी फुलवारी ,
हर फूल-पत्ते में - तेरी सुधि प्यारी ;
बाहर जा कर जब मैं तुझको न पाती ,
तुझ बिन फूलों की गंध मन को न भाती ;
कैसे सीखूँ अब मैं तुझ बिन यूँ रहना ?
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना.........
भीतर जब लौटूँ, तो हर कमरा खाली ,
खाली रसोई और मन्दिर भी खाली ;
जब तू न मिले कहीं, तो तेरे सामान छी लूँ ,
जैसे तू मिल गई हो - उन्हें भींच जी लूँ ;
तेरी चुन्नी - चूड़ी या कोई गहना ,
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना.........
किसी को बुलाऊँ , तो तेरा ही नाम आए ,
और यह सोच - मेरा जी भर-भर आए ;
भेजा है दूर बहुत तुझको जो मैंने ,
देखा कबसे नहीं ज्यों युग बिताए मैंने ;
कब तू आएगी - ' मेरी प्यारी मैना ' ;
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना.........
बहनें रोएँ तेरी , भैया भी रोएँ ,
मैं तड़पूं मन में , पिता चैन से न सोएँ ;
आएँ सखियाँ तेरी - बड़ी सूनी-सूनी ,
पूछें - कब आएगी ? - हो उदास दूनी ;
देखूँ कैसे सबका - तेरी याद सहना ;
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना........
सुबह-शाम आस लिए मन मैं बहलाती हूँ ,
बीतें कुछ घड़ियाँ , झट तुझको बुलवाती हूँ ;
आएगी जब - झट मैं गोद में छिपा लूंगी ,
उतारूंगी नज़र , तुझे जी भर निहारूंगी ;
देखूँगी सबके चेहरे फिर से खिलना ;
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना.........
लाड़ली जनक की , तुझे दी जो बिदाई ,
ससुराल - अयोध्या सी , सास कौशल्या सी पाई ;
मन हो विकल जब , ये धीरज बँधाऊँ ,
'राम' जैसा वर है , 'सिया' जैसी तुझे पाऊँ ;
अटल-सुहाग भरी रहो ''गुण-सगुणा'' ;
घर सूना लागे , सूना लागे अँगना.........||
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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