ज़रा सोचते. . . . . . . .
भरी दोपहर में मेरा साथ छोड़ा , ज़रा सोचते साँझ आने तो देते - - -
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बड़े भोर से जो लगाई थी बगिया , अभी उनमें कलियाँ और पत्ते नए थे . .
औ' फूलों का बगिया में खिलना बचा था , कि भँवरों आ गुनगुनाने तो देते - - - |
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नई डाल पर नीड़ एक जो बना था , अभी उसको पँछी बसाने गए थे . .
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झड़े फूल-पत्ते , बचे सिर्फ काँटे , ये पतझड़ में बदला बहारों का मौसम . .
हैं तीखी हवाएँ और लुटती सी बगिया , कहीं कोई बागड़ लगाने तो देते - - - |
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न सूरज न चंदा कहीं आके चमके , हैं रातें अँधेरी , ना बिजली ही दमके . .
यहाँ हो गईं नित अमावस की रातें , कहीं कोई दीपक जलाने तो देते - - - |
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हैं टूटे से छज्जे , पुरानी दीवारें , झरोखों में शीशे , औ' जर्जर हैं द्वारे . .
बिना चौकसी का महल तुमने छोड़ा , कहीं कोई प्रहरी बिठाने तो देते - - - |
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ये उजड़े से मंज़र और सुनसान राहें , ये सूनी सी आँखें और ख़ाली सी बाहें . .
नहीं कोई इनकी तलाशों की सीमा , ज़रा भटकनों को थमाने तो देते - - - |
ज़रा सोचते साँझ आने तो देते . . . . ज़रा सोचते साँझ आने तो देते - - - - - ||
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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बहुत मर्मस्पर्शी और भावपूर्ण अभिव्यक्ति...आभार
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना --------आभार
ReplyDeleteधन्यवाद |
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