एक दीप आशा का........
उ जियारों की चकाचौंध से पार , जरा जब नज़र गई ;
अँधियारों में 'कुछ देखा' , नज़र वहीं पर ठहर गई -
कहीं किसी कोने कचरे में सुना रुदन, हलचल देखी ,
जीवन पड़ा बिलखता देखा , मौत वहीं पल-पल देखी |
सूखा बदन हाथ फैलाए - 'बचपन' देखा खड़ा कहीं ,
बीन-बीन कर खाते देखा - जूठन में जो पड़ा कहीं |
कहीं अनाथ बहन और भाई , भीख माँगने निकल पड़े ,
कहीं मिलीं झिड़की गाली या कोई उन पर पिघल पड़े |
जूठा बासी जो भी मिलता , खाते देखा मिल-जुल कर ,
रात किसी कोने में थक कर , सोते देखा हिल-मिल कर |
मजदूरी करते देखे बच्चे - जिनके दिन पढ़ने के ,
घर भर का वे पेट पालते , जिनके दिन थे बढ़ने के |
कहीं बुरी-संगत में देखा , अपने बाल-गोपालों को ,
कहीं व्यसन में डूबे देखा - देश के नौ-निहालों को |
कहीं बिखरता यौवन देखा , उम्र जहाँ अभिशाप हुई ,
माँ - बेटी या बहन जहाँ पर 'लडकी' बन कर पाप हुई |
कहीं बिका मातृत्व बिचारा , दिया लाल रोते-रोते ,
कहीं कोख के सौदे होते - जिसके 'पैसे' तय होते |
कहीं बुढ़ापा करे मजूरी , कहीं भीख से घर पाले ,
कहीं रहे 'वृद्धाश्रम' जा कर , कहीं 'अलग' डेरा डाले |
देख-देख कर ये अँधियारे दिल रोया , आँखें रोईं ,
चलो जगाएँ मानवता-ममता , जो शायद हैं सोईं |
एक दीप 'आशा' का ले कर हमको भी चलना होगा ,
जिससे-जैसे-जितना भी हो , तम को कम करना होगा |
तम को कम करना होगा...तम को कम करना होगा.....||
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सर्वाधिकार सहित , स्व रचित रचना
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