कहो कृष्ण............
आज तुमसे प्रश्न मेरा है यही , सांत्वना किस तरह दोगे तुम भला ;
सत्य को स्वीकार कैसे मैं करूँ , सत्य तो सुन्दर नहीं होता सदा |
झूठ में दिग्भ्रमित रहना है सरल ; और 'सत्य का स्वीकार' - पीना ज्यों गरल ;
और क्या कर्तव्य जो करते रहे हम ; फल की आशा छोड़ मन भरते रहे हम -
यही तो गीता में तुम कहते रहे थे , और हम फल को भुला बहते रहे थे |
अंत क्या होगा - कभी सोचा नहीं ; ' तुम जो हो ' - फिर घात तो होगा नहीं
यही था विश्वास जो हम तन गए , पर 'तुम्हीं' विश्वासघाती बन गए ;
क्या यही रिश्ता है तुम्हारा और मेरा ? मैं बड़ी हूँ तुमने ना सोचा ज़रा ?
लाड़ पाया तुमने मेरा उम्र भर , आज यह बदला दिया क्या सोच कर ?
दूर से जो रेत पानी सी दिखी , मैं क्षुधातुर दौड़ती पीछे रही ;
और आशा झील सी लगती रही , शक्ति जब तक बची मैं भगती रही
पहुँच देखा - सत्य ही बहने लगा , ' रेत हूँ मैं, जल नहीं ' - कहने लगा |
फिर लड़खड़ाई , आस खोई नैन ने , मन न माना झूठ ढूँढा बैन ने ;
झूठ में आशा भरी थी त्राण की , सत्य ने तोड़ी सुराही प्राण की |.
सत्य को शिव और सुन्दर क्यों कहा ? सत्य का विद्रूप तो मैं ने सहा !
सत्य यदि शिव हैं तो वे दानी नहीं , रेत क्यों चमकी अगर पानी नहीं ?
आज मुझको झूठ में पूरित करो तुम , सत्य को भी झूठ में परिणित करो तुम ;
या समय को आज पीछे भेज दो , काल को पलटो, कि विगत सहेज दो |
कर नहीं सकते अगर इतना भी तुम , मृत्यु ही है सत्य अंत अटल नियम ;
तो दो मुझे भी आज शैया मृत्यु की , सत्य के उपहार अंतिम कृत्य की ||
हे कृष्ण .........!हे कृष्ण.........! हे कृष्ण............!
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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