Friday, 12 August 2011

कुछ प्रश्न - '' कृष्ण अनुज '' से .....

             
कहो कृष्ण............

               आज तुमसे प्रश्न मेरा है यही , सांत्वना किस तरह दोगे तुम भला ;
               सत्य को स्वीकार कैसे मैं करूँ , सत्य तो सुन्दर नहीं होता सदा |
               झूठ में दिग्भ्रमित रहना है सरल ; और  'सत्य का स्वीकार' - पीना ज्यों गरल ;
               और  क्या कर्तव्य जो करते रहे हम ; फल की आशा छोड़ मन भरते रहे हम -

               यही तो गीता में तुम कहते रहे थे , और हम फल को भुला बहते रहे थे |
               अंत क्या होगा - कभी सोचा नहीं ;  ' तुम जो हो ' - फिर घात तो होगा नहीं 
               यही था विश्वास जो हम तन गए , पर 'तुम्हीं'  विश्वासघाती बन गए ;
               क्या यही रिश्ता है तुम्हारा और मेरा ? मैं बड़ी हूँ तुमने  ना सोचा ज़रा ?

             लाड़ पाया तुमने मेरा उम्र भर , आज यह बदला दिया क्या सोच कर ?
             दूर से  जो  रेत पानी सी दिखी ,  मैं क्षुधातुर दौड़ती पीछे रही ; 
            और  आशा झील सी लगती रही , शक्ति जब तक बची मैं भगती रही 
             पहुँच देखा - सत्य ही बहने लगा ,  ' रेत हूँ मैं, जल नहीं ' - कहने लगा |

              फिर लड़खड़ाई , आस खोई नैन ने , मन न माना झूठ ढूँढा  बैन  ने ;
              झूठ में आशा भरी थी त्राण की , सत्य ने तोड़ी सुराही प्राण की |. 
              सत्य को शिव और सुन्दर क्यों कहा ?  सत्य का विद्रूप तो मैं ने सहा !
              सत्य यदि शिव हैं तो वे दानी नहीं , रेत क्यों चमकी अगर पानी नहीं ?

               आज मुझको झूठ में पूरित करो तुम , सत्य को भी झूठ में परिणित करो तुम ;
               या समय को आज पीछे भेज दो , काल को पलटो, कि विगत सहेज दो |
               कर नहीं सकते अगर इतना भी तुम , मृत्यु ही है सत्य अंत अटल नियम ;
               तो दो मुझे भी आज शैया मृत्यु की , सत्य के उपहार अंतिम कृत्य की ||

                                         हे कृष्ण .........!हे कृष्ण.........! हे कृष्ण............!

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                                                 सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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1 comment:

  1. बहुत सारगर्भित और भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत सुन्दर

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