मन की पीर.........
मन की पीर न मैं कह पाई .....
मन की पीर न मैं कह पाई .....
कान्हा को तन-मन से चाहा , लोक-लाज को छोड़ निबाहा ;
मान दिया मोहन ने मन से , ब्रम्ह -शक्ति का रूप जतन से ;
श्याम गए जब मथुरा नगरी , पनघट पर बैठी भर गगरी ;
ऐसी कोई आई बाधा , नैन नीर भर बोली राधा -
जाते बाँह न मैं गह पाई.... जाते बांह न मैं गह पाई ......
मन की पीर न मैं कह पाई .......
घर से निकली निपट अकेली , चंचल-अल्हड़ कीं अठखेली ;
निर्मल- उज्वल , दूध-धवल थी , दुनियाँ से अबोध निश्छल थी ;
सागर से जा कर मिलना था , राह कठिन और तिमिर घना था ;
हर पग पर विपदाएँ घोलीं , हो उदास यह नदिया बोली -
खुश निर्बाध न मैं बह पाई .... खुश निर्बाध न मैं बह पाई ....
मन की पीर न मैं कह पाई ..........
एक कली बगिया में फूली , भोली में भूली अल्हड़ता में भूली ;
उसकी थी कुछ शान निराली , दिन होली के - रात दीवाली ;
जिस डाली पर झूल रही थी , बचपन से फल-फूल रही थी ;
बींधा उसके ही काँटों ने , तब बोली - ''जीवन दो खोने'' -
यह अपमान न मैं सह पाई ..... यह अपमान न मैं सह पाई .......
मन की पीर न मैं कह पाई - - - मन की पीर न मैं कह पाई - - - मन की पीर न मैं कह पाई !!
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एक कली बगिया में फूली , भोली में भूली अल्हड़ता में भूली ;
उसकी थी कुछ शान निराली , दिन होली के - रात दीवाली ;
जिस डाली पर झूल रही थी , बचपन से फल-फूल रही थी ;
बींधा उसके ही काँटों ने , तब बोली - ''जीवन दो खोने'' -
यह अपमान न मैं सह पाई ..... यह अपमान न मैं सह पाई .......
मन की पीर न मैं कह पाई - - - मन की पीर न मैं कह पाई - - - मन की पीर न मैं कह पाई !!
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( सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना )
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