ओ बरखा रूपसि........!!
ओ बरखा रूपसि ! तेरा रूप अपार ,
दृग बाँध न पाते , अतुल भव्य श्रृंगार !
आभा-युत मुखड़ा वह निरभ्र आकाश ,
नव बाल-सूर्य तव भाल सजे स-प्रकाश !
सिन्दूरी बादल ओष्ठ बने कर युक्ति ,
दामिनि चमके ज्यों स्मित हों रद-पंक्ति !
घन कुन्तल अवगुंठित हैं बदली काली ,
खुल जाएँ तो घन-घोर घटा मतवाली !
जब पवन-वेग से बादल उड़-उड़ आएँ ,
ज्यों श्यामल अलकें मुखड़े पर छा जाएँ !
चमकीले बदल झिल-मिल चुनर उड़ाएँ ,
सतरंगी गजरा इंद्र-धनुष बन जाए !
छुम-छुम पायल सी रिम-झिम बूँदें बरसें ,
तृण कोमल किसलय रोमांचित हो सरसें !
हे सुन्दरि ! सुन्दर रूप सदा अपनाना ,
तुम रौद्र रूप अपना न कभी दिखलाना !!
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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