देखो घर आ गई बिटिया सजीली....
आषाढ़ के जाते ही , सावन के आते ही -
सज-धज कर आ गई बरखा सजीली ;
सावन मनाने , राखी के बहाने ज्यों -
बाबुल के घर आई बिटिया हठीली |
पीहर धरती उसकी , ससुराल आकाश ;
मायके में रुकने की , बिटिया को है आश ;
माँ धरती सूखी , बिदा कर जो सिसकी ,
वृक्ष पिता कुम्हलाए याद कर उसकी |
नाले-नदी भाई-बहन - बह-बह कर सूखीं
बगियाँ सखियाँ पीली पड़ीं रह भूखीं ;
बिटिया ने देखे होंगे इन सबके सपने ,
तभी अश्रु भर लाई नयनों में अपने |
देखा जब सबको यूँ अपने विरह में -
उसकी भी आँखें लगीं देखो झरने ;
बिटिया के अश्रु देख बरसीं फिर अँखियाँ ,
माँ-पिता , भाई-बहन और सब सखियाँ |
आँचल में भर उसे धरती माँ अघाई ,
वृक्ष पिता हरे-भरे दिए फिर दिखाई ;
नाले-नदी भाई-बहन झूम कर बहे फिर -
बगियाँ सखियाँ ओढ़ें हरी-हरी चूनर |
बरखा बिटिया आज मेंहदी जो रचाए ,
प्रकृति के चित्र-फूल हाथ पर सजाए ;
बिटिया जब सावन में पीहर में आतीं -
घर-भर में मंगल और खुशियाँ बरसातीं ||
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सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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