Wednesday 31 July 2013

चलो , गाँव चलें - - - - - - - -


दो खेतों के बीच बनी थी छोटी सी पग-डंडी , खेत लहलहाते थे सारे थी बयार भी ठंडी ;
कहीं-कहीं खलिहान बने थे, कहीं दिखी अमराई, कहीं दिखी बैलों की जोड़ी हल से करे जुताई  
कहीं कुएँ पर पनिहारिन झुक-झुक भरती थी पानी, कहीं आम के नीचे बच्चों संग बैठी थी नानी
चलते-चलते मोड़ आ गया पहुँचे घर के आगे, जो सुहावना दृश्य वहाँ देखा तो सपने जागे -
''लिपा-पुता घर-बाहर देखा, द्वार सजी रांगोली, बने माँडने दीवारों पर चौखट चन्दन रोली ;
बंदन-वार लगी दरवाजे गणपति स्वास्तिक जोड़ी, मंगल-कलश भरा दरवाजे आम्र-पत्र संग मौली  
भीतर आँगन बीच बना था एक तुलसी का चौरा, उसमें शालिग्राम रखे थे बाँधे मौली डोरा
आँगन के दूजे कोने में बछड़े संग थी गैया, था दीवार पर चित्र कृष्ण का संग यशोदा मैया
थी दालान के एक खम्भे में दधि भाने की मटकी, माखन का था भरा कटोरा जिस पर आखें अटकीं
आगे फिर एक बड़ा कक्ष था उसमें था एक मंदिर, जिसमें मूर्ति सजीं थीं गणपति,दुर्गा,गौरा-शंकर
संग विराजीं राम-पंचायतन,विष्णु-लक्ष्मी मैया, भारत-माता संग विराजे लड्डू लिए कन्हैया
और कक्ष थे जिनमें अन्य गृहस्थी के साधन थे, एक रसोई स्वच्छ जहाँ सबके बनते भोजन थे
पिछवाड़े फिर एक बाड़ा था, जिसमें बड़ा कुआँ था, अन्य सभी निस्तार वहाँ था, नीम भी लगा हुआ था
थीं थोड़ी सब्जी की क्यारी , बिना रसायन वाली , कोथमीर और मिर्च-पुदीना ,अदरक-लहसुन वाली
बाहर से भीतर तक देखा घर जो सुघढ़ सलोना, आँखों से आत्मा तक तृप्त हो गया कोना-कोना
गाँवों में बसता है भारत अपनी संस्कृति वाला, मन बस गया यहीं पर अब यह कहीं न रमने वाला ||

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                                          सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना 
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