Tuesday, 6 August 2013

मैंने बस इतना जाना है............

तुम में मेरे अनदेखे से कुछ सपने थे, वे जैसे भी थे मगर सभी मेरे अपने थे |
***
नन्हें थे तब किलकारी से घर को भरते, पैर मोड़ कर एक अँगूठा मुँह में धरते ;
मैं ढूँढा करती थी तब भी बड का पत्ता, वह मुस्कान तुम्हारी मोहक थी अलबत्ता |
मेरे सिवा न कोई समझा तुतली बतियाँ, भोलेपन से सब कह देतीं नटखट अँखियाँ ,
मन ना पाया पार, देखकर उठी ललक थी, तुम में ढूँढे ‘’कृष्ण’’ कि क्या मैं कहीं गलत थी ?
                                     
ज़रा बढ़े कुछ समझे जग के रिश्ते-नाते, पद मर्यादा कैसे समझे कह ना पाते ;
मन की बात सदा ही मुझसे छिप कर बोले, कभी पिता के सम्मुख मुँह से कुछ ना बोले |
सबको देते मान कि सबका करते आदर, फूल झड़े वाणी से बोली ऐसी सुखकर ,
मन ना पाया पार, देखकर उठी ललक थी, तुम में ढूँढे ‘’राम’’ कि क्या मैं कहीं गलत थी ?
***
अब समझे ममता-माया की नई कहानी, दया-क्षमा इतनी तुम में क्यों मैं ना जानी ;
दिल न किसी का दुखे यही तुम हर-दम कहते, किसी और का दुःख देख तुम व्याकुल रहते |
कुछ बातें सांसारिकता की मुझे सुनाते, कुछ विराग के प्रश्न-उलझ कर जो रह जाते ,
मन ना पाया पार, देख कर उठी ललक थी, तुम में ढूँढे ‘’बुद्ध’’ कि क्या मैं कहीं गलत थी ?
***
और बड़े तुम हुए कि अब कविता लिख लाए, मैंने तुम्हें टटोला- नन्हा कवि दिख जाए ;
पढ़ने में आगे थे यह मैंने माना था, पर कवि कहाँ छुपा था अब तक ना जाना था |
कविता थीं दुःख की सुख की करुणा के रस की, भावों के रूपों की सिर्फ तुम्हारे बस की ,
मन ना पार देख कर उठी ललक थी, मैं ढूँढूँ टैगोर कि क्या मैं कहीं गलत थी ?
***
देखा कलाकार भी तुम में बसा हुआ था, सीखोगे सब – यह निश्चय भी कसा हुआ था ;
लिपि हो या हो चित्र-कला, सबमें आकर्षण, वाद्य छुओ तो स्वर फूटें करते ही घर्षण |
स्वर की पूरी पकड़ कहाँ से तुमको आई, नाद-ताल की परख कहाँ से मन को भाई ,
मन ना पाया पार देख कर उठी ललक थी, हो‘’सरस्वती-वरदान’’कि क्या मैं कहीं गलत थी ?
***
कहीं गलत थी क्या मैं ? यह जो आज सोचती, उत्तर पाने को क्रमशः हर प्रश्न रोपती ;
मन प्रमुदित हो जाता है,पुलकित हो जाते गात,होनहार-बिरवा तुम लगते जिसके चिकने पात
कृष्ण-राम और गौतम बुद्ध कहाँ से आए,कवि टैगोर,कला के ज्ञाता, सब ‘’माँ जाए’’ ,
मैं भी माँ हूँ मैंने भी इतना माना है- ''तुम'' सब हो, सब तुम में हैं इतना जाना है ||

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                           सर्वाधिकार सुरक्षित , स्व-रचित रचना
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Wednesday, 31 July 2013

चलो , गाँव चलें - - - - - - - -


दो खेतों के बीच बनी थी छोटी सी पग-डंडी , खेत लहलहाते थे सारे थी बयार भी ठंडी ;
कहीं-कहीं खलिहान बने थे, कहीं दिखी अमराई, कहीं दिखी बैलों की जोड़ी हल से करे जुताई  
कहीं कुएँ पर पनिहारिन झुक-झुक भरती थी पानी, कहीं आम के नीचे बच्चों संग बैठी थी नानी
चलते-चलते मोड़ आ गया पहुँचे घर के आगे, जो सुहावना दृश्य वहाँ देखा तो सपने जागे -
''लिपा-पुता घर-बाहर देखा, द्वार सजी रांगोली, बने माँडने दीवारों पर चौखट चन्दन रोली ;
बंदन-वार लगी दरवाजे गणपति स्वास्तिक जोड़ी, मंगल-कलश भरा दरवाजे आम्र-पत्र संग मौली  
भीतर आँगन बीच बना था एक तुलसी का चौरा, उसमें शालिग्राम रखे थे बाँधे मौली डोरा
आँगन के दूजे कोने में बछड़े संग थी गैया, था दीवार पर चित्र कृष्ण का संग यशोदा मैया
थी दालान के एक खम्भे में दधि भाने की मटकी, माखन का था भरा कटोरा जिस पर आखें अटकीं
आगे फिर एक बड़ा कक्ष था उसमें था एक मंदिर, जिसमें मूर्ति सजीं थीं गणपति,दुर्गा,गौरा-शंकर
संग विराजीं राम-पंचायतन,विष्णु-लक्ष्मी मैया, भारत-माता संग विराजे लड्डू लिए कन्हैया
और कक्ष थे जिनमें अन्य गृहस्थी के साधन थे, एक रसोई स्वच्छ जहाँ सबके बनते भोजन थे
पिछवाड़े फिर एक बाड़ा था, जिसमें बड़ा कुआँ था, अन्य सभी निस्तार वहाँ था, नीम भी लगा हुआ था
थीं थोड़ी सब्जी की क्यारी , बिना रसायन वाली , कोथमीर और मिर्च-पुदीना ,अदरक-लहसुन वाली
बाहर से भीतर तक देखा घर जो सुघढ़ सलोना, आँखों से आत्मा तक तृप्त हो गया कोना-कोना
गाँवों में बसता है भारत अपनी संस्कृति वाला, मन बस गया यहीं पर अब यह कहीं न रमने वाला ||

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Monday, 29 July 2013

बिटिया आई......


देखो घर आ गई बिटिया सजीली....




आषाढ़ के जाते ही , सावन के आते ही -
सज-धज कर आ गई बरखा सजीली ;
सावन मनाने , राखी के बहाने ज्यों -
बाबुल के घर आई बिटिया हठीली |
                      पीहर धरती उसकी , ससुराल आकाश ;
                      मायके में रुकने की , बिटिया को है आश ;
                      माँ धरती सूखी , बिदा कर जो सिसकी ,
                      वृक्ष पिता कुम्हलाए याद कर उसकी |
नाले-नदी भाई-बहन - बह-बह कर सूखीं
बगियाँ सखियाँ पीली पड़ीं रह भूखीं ;
बिटिया ने देखे होंगे इन सबके सपने ,
तभी अश्रु भर लाई नयनों में अपने |
                      देखा जब सबको यूँ अपने विरह में -
                      उसकी भी आँखें लगीं देखो झरने ;
                      बिटिया के अश्रु देख बरसीं फिर अँखियाँ ,
                      माँ-पिता , भाई-बहन और सब सखियाँ |
आँचल में भर उसे धरती माँ अघाई ,
वृक्ष पिता हरे-भरे दिए फिर दिखाई ;
नाले-नदी भाई-बहन झूम कर बहे फिर -
बगियाँ सखियाँ ओढ़ें हरी-हरी चूनर |
                       बरखा बिटिया आज मेंहदी जो रचाए ,
                       प्रकृति के चित्र-फूल हाथ पर सजाए ;
                       बिटिया जब सावन में पीहर में आतीं -
                       घर-भर में मंगल और खुशियाँ बरसातीं ||                     

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                                           सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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Friday, 26 July 2013

ओ बरखा रूपसि.....!!


 ओ बरखा रूपसि........!!

ओ बरखा रूपसि ! तेरा रूप अपार ,
दृग बाँध न पाते , अतुल भव्य श्रृंगार !
                            आभा-युत मुखड़ा वह निरभ्र आकाश ,
                            नव बाल-सूर्य तव भाल सजे स-प्रकाश !
 सिन्दूरी बादल ओष्ठ बने कर युक्ति ,
 दामिनि चमके ज्यों स्मित हों रद-पंक्ति !
                            घन कुन्तल अवगुंठित हैं बदली काली ,
                            खुल जाएँ तो घन-घोर घटा मतवाली !
 जब पवन-वेग से बादल उड़-उड़ आएँ ,
 ज्यों श्यामल अलकें मुखड़े पर छा जाएँ !
                            चमकीले बदल झिल-मिल चुनर उड़ाएँ ,
                            सतरंगी गजरा इंद्र-धनुष बन जाए !
 छुम-छुम पायल सी रिम-झिम बूँदें बरसें ,
 तृण कोमल किसलय रोमांचित हो सरसें !
                            हे सुन्दरि ! सुन्दर रूप सदा अपनाना ,
                           तुम रौद्र रूप अपना न कभी दिखलाना !!

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                                            सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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Tuesday, 16 July 2013

ओ सखि बदली.......


ओ सखि,बदली......!! 

                 ओ सखि बदली ! बहुत दिनों में तुम आईं !!

क्या याद तुम्हें है, कब बिछुड़ी थीं मुझसे तुम ?
दिन-रात , मास कितने  बीते - होकर गुम-सुम  ??
जब विलग हुईं थीं मुझसे - थीं ख़ाली-ख़ाली ,
अब इतने अश्रु समेट कहाँ से भर लाईं ?
                        ओ सखि बदली ! बहुत दिनों में तुम आईं !!

सखि, कहो वेदना अब मुझसे अपने दिल की ,
जो बीती तुम पर व्यथा - कहो इतने दिन की ,
मैं भी व्याकुल हूँ तुमसे अपनी कहने को ,
मेरे मन के बातें सुनने  ,तुम घिर आईं ;
                        ओ सखि बदली ! बहुत दिनों में तुम आईं !!

कितनों का दुःख समेट भरा तुमने उर में ?
कितनों का दर्द पिया सुन कर विपदा तुमने ?
अन्तर की पीड़ा आज मुझे बतला दो तुम ,
सबकी पीड़ा से कितनी करुणा भर लाईं ?
                        ओ सखि बदली ! बहुत दिनों में तुम आईं !!

मेरी आँखों के संग आज तुम भी बरसो ,
मन हल्का कर लो और न अब घुट-घुट तरसो ,
तुम मुझसे अपनी कहो आज और मैं तुमसे ,
लो , तुम्हें देख आँखें मेरी भी भर आईं --
                                   ओ सखि बदली ! बहुत दिनों में तुम आईं !!

ओ सखि बदली......! ओ सखि बदली......!! ओ सखि बदली....!!!

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Tuesday, 9 July 2013

मन डूब-डूब जाता है..........





उगते सूरज की लाली में........

मन डूब-डूब जाता है.............!!

मन्त्रों के सुरीले जाप में , भैरवी के आलाप में ,
ओम् के उच्चार में , ऊर्जा के संचार में ,
आरती के छन्द में , अगर की सुगंध में ,
मन में कही प्रार्थना में , सुर में गाई वन्दना में -
                                        मन डूब-डूब जाता है........

आरती की सजी थाली में , उगते सूरज की लाली में ,
आशीर्वचन की बोली में , मस्तक पर लगी रोली में ,
भजन के मीठे बैन में , श्रद्धा से झुके नैन में ,
विचारों की सादगी में , पवित्रता की बानगी में ,
                                       मन डूब-डूब जाता है........

मुरली की मीठी तान में , रूठी राधा के मान में ,
मोर-पंख के रंग में , मन की जल-तरंग में ,
कोहरे से भरे प्रात में , झरते जल-प्रपात में ,
फूल पर जमी बूँद में , भँवरे की निरंतर गूँज में ,
                                       मन डूब-डूब जाता है.......

पानी से नहाई बगिया में , कल-कल बहती नदिया में ,
गुड़ाई की हुई क्यारी में , फूल पर तितली की सवारी में ,
हरे-भरे से खेत में , नदी किनारे रेत में ,
रहट के संगीत में , तोता-मैना की प्रीत में ,
                                      मन डूब-डूब जाता है........

चुग्गा देती चिड़िया में , घूँघट ओढ़ी गुड़िया में ,
नन्हें की तुतली भाषा में , मुन्नी के नैनों की आशा में ,
नीर भरी एक बदली में , सावन में गाई कजली में ,
झोंके की ठँडी बयार में , खिड़की से आती फुहार में ,
                                      मन डूब-डूब जाता है........

धूल उड़ाती पुरवाई में , बौर लदी अमराई में ,
ज़िद्दी कोयल की कूक में , विरही पपीहे की हूक में ,
बैलों की घंटी की टन-टन में , पनिहारिन के पैरों की छन-छन में ,
बादलों में उड़ती पतँग में , दो सखियों की बातों के ढंग में ,
                                         मन डूब-डूब जाता है.......

मदद को बढ़े हाथ में , बिना स्वार्थ के साथ में ,
निःस्वार्थ सेवा-भाव में , सबकी खुशियों के चाव में ,
योग्य के गुण-गान में , बिना दिखावे के दान में ,
हर द्वन्द के समाधान में , शान्त मन के ध्यान में
                                        मन डूब-डूब जाता है........
मन डूब-डूब जाता है.............. मन डूब-डूब-जाता है.................

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                      सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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Friday, 5 July 2013

प्रतीक्षा - - - - - - - - - - - - -



आज अब तक पी न आए . . . . .आज अब तक पी न आए . . . . . . 
         
                          है चकोरी शान्त ,बुलबुल भी न गाती ,
                         गूँज भँवरे की नहीं कुछ भी सुनाती ,
                         तितलियाँ थिरकीं नहीं फूल औ' कली पर ,
                         मस्त पुरवाई रुकी सब को उड़ाती ;
                         अनमनी सी हो गई कोयल न गाए -
आज अब तक पी न आए . . . . . . . . . .

                         मैं सजी कुम-कुम लगाया भाल पर ,
                         शर्म की लाली सी छाई गाल पर ,
                         माँग भर खुद को निहारा तब लगा -
                         नैन का कजरा हँसा इस हाल पर ;
                         उन बिना सिंगार भी मन को न भाए -
आज अब तक पी न आए . . . . . . .  . .

                         हर पहर, हर पल रही इस में उलझती ,
                         आ रहें हैं इसी क्षण 'प्रिय' यह समझती ,
                        पर नहीं आए , कि आई साँझ-बेला ,
                        मैं निहारूँ बाट आशा में विकलती ;
                        चाहती हूँ - ''आ गए '' - कोई सुनाए -
आज अब तक पी न आए . . . . . . . . . .

न आए . . . . . . . . न आए . . . . . . . . . न आए . . . . . . . . .न आए ||


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Wednesday, 3 July 2013

कितना मधुर........? कितना कठिन...........??


बड़ा मधुर होता है .......बड़ा मधुर होता है .......

बड़ा मधुर होता है - अपनी बगिया की क्यारी में -
                   कुछ बीजों को बोना ,
उन्हें सींचना, अंकुर, डाली,पत्ते,कलियाँ, फूल -
                   सभी से क्यारी भरना ;
तितली-मधुप-सुगंध-रंग , सब देख झूमना -
                  अपनी बगिया के संग जीना ;
फिर वसन्त जाने पर उनको मुरझाते-सूखते-बिखरते
                  स्वयं देखना- बड़ा कठिन होता है ..
बड़ा कठिन होता है .......बड़ा कठिन होता है ......!!

                   *   *   *

बड़ा मधुर होता है - बादल की उड़ती चादर से -
                  कुछ टुकड़ों को चुनना ,
उन्हें जोड़ना, चित्र बनाना, उन चित्रों में सपने बुनना -
                            उनमें खोना ;
साथ उन्हीं के उड़ते जाना , खुद को उनके बीच देखना -
                            उनमें जीना ;
किन्तु हवा के झोंकों से उनका मिट जाना, उन्हें ढूँढना -
                   फिर थक जाना, बड़ा कठिन होता है..
बड़ा कठिन होता है ....बड़ा कठिन होता है .........!!

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धैर्य का साथ - - - - - -



                                                 

           चल पड़े सुबह से जो राही अपने पथ पर ,
                               वो क्या जानें बिन चले कि पथ कैसा होगा ;
                 ऊबड़-खाबड़ होगा या दुर्गम-सुगम कहीं -
                               निज सूझ-बूझ से पार उसे करना होगा |

                 यदि दूर कहीं मंज़िल का दीपक दिखे कहीं ,
                               उस तक जाने में मग का तम सहना होगा ;
                 राहों में बाधा आएँ  या कंटक बिखरें -
                               दृढ़ता से धीरज रख कर सब चुनना होगा |

                 विपदाओं की आँधी आ जाए यदि पथ में ,
                              बिन काँपे डगमग , पैर जमा चलना होगा ;
                 यदि बाढ़ दुखों की घेरे जीवन की सरिता -
                               हर भँवर-लहर के वेग झेल बढ़ना होगा |

                 यदि तड़ित दामिनी गिर कर नष्ट करे सब-कुछ ,
                               फिर नए सिरे से जीवन-क्रम रचना होगा ;
                 और मन या तन विचलित हो घबरा जाए कभी -
                               तब धैर्य निभा ''प्रभु-नाम'' सदा जपना होगा !!

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बात में से बात......

                           

     अच्छे सी शुरुवात.........




 आओ कुछ अच्छी बात करें, एक छोटी सी शुरूवात करें - - - - 
   
                 छोटी सी शुरूवात भला  क्यों मन में आईं ,
                 बड़ी-बड़ी बातें करना क्यों मन ना भाईं ?
                 बड़ा पेड़ भी पहले नन्हा पौधा ही था ,
                 पकी धान के खेत  में रोपा जरवा ही था |
                
                तिनका एक चोंच में लेकर चिड़िया आई ,
                 नीड़ घना फिर बना , बसा , दाना ले आई |
                 नन्हें बच्चे चोंच खोल कार दाना खाते ,
                चिड़ा-चिड़ी पर पहला दाना भूल न पाते |
               
               
                नन्हा उद्गम ही प्रवाह का कारण होता ,
                मिलते नद-नाले सागर में विलयन होता |
                एक अकेला निकल राह में हाँक लगाता ,
                कुछ घंटों के बाद वही जत्था बन जाता |
               
                कुछ करने से कुछ करने का मन बनता है ,
                मन लगने से उन बातों का क्रम बनता है |
                जाने कितनी ऐसी बातें मन में आतीं ,
                ''सोच'' बड़ी सी पुस्तक - परतें खुलती जातीं |
               
                नेक काम की शुरूवात अब यूँ करना है -
               '' भ्रष्टाचार किसी स्तर का नहीं सहना है'' ||

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                                       सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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Tuesday, 2 July 2013

संकल्प....


संकल्प . . . . . . .
                       
                      संकल्प  करो मन  , कुछ आज के लिए |

                       मान के लिए , निज-अभिमान के लिए ,
                       यश-गान के लिए , गुण-गान के लिए ;
                       देश के लिए , परिवेश के लिए ,
                       स्वराज के लिए , समाज के लिए -
                       संकल्प करो मन , कुछ आज के लिए . . . . .

                       आचार के लिए , सदाचार के लिए ,
                       संस्कार के लिए , सद्-विचार के लिए ;
                       कर्म के लिए , निज-धर्म के लिए ,
                       दान के लिए , स्वार्थ-त्याग के लिए -
                       संकल्प करो मन , कुछ आज के लिए . . . . .

                       सत्व के लिए , अपनत्व के लिए ,
                       स्वत्व के लिए , समत्व के लिए ;
                       मातृत्व के लिए , भ्रातृत्व के लिए ,
                       देवत्व के लिए , अमरत्व लिए -
                       संकल्प करो मन कुछ आज के लिए . . . . .

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Wednesday, 26 June 2013

एक दीप आशा का.........





एक दीप आशा का........
    
     
      उ जियारों की चकाचौंध से पार , जरा जब नज़र गई ;
          अँधियारों में 'कुछ देखा' , नज़र वहीं पर ठहर गई -
          कहीं किसी कोने कचरे में सुना रुदन, हलचल देखी ,
          जीवन पड़ा बिलखता देखा , मौत वहीं पल-पल देखी |

          सूखा बदन हाथ फैलाए - 'बचपन' देखा खड़ा कहीं ,
          बीन-बीन कर खाते देखा - जूठन में जो पड़ा कहीं |
          कहीं अनाथ बहन और भाई , भीख माँगने निकल पड़े ,
          कहीं मिलीं झिड़की गाली  या कोई उन पर पिघल पड़े |

          जूठा बासी जो भी मिलता , खाते देखा मिल-जुल कर ,
          रात किसी कोने में थक कर , सोते देखा हिल-मिल कर |
          मजदूरी करते देखे बच्चे - जिनके दिन पढ़ने के ,
          घर भर का वे पेट पालते , जिनके दिन थे बढ़ने के |

          कहीं बुरी-संगत में देखा , अपने बाल-गोपालों को ,
          कहीं व्यसन में डूबे देखा - देश के नौ-निहालों को |
          कहीं बिखरता यौवन देखा , उम्र जहाँ अभिशाप हुई ,
          माँ - बेटी या बहन जहाँ पर 'लडकी' बन कर पाप हुई |

          कहीं बिका मातृत्व बिचारा , दिया लाल रोते-रोते ,
          कहीं कोख के सौदे होते - जिसके 'पैसे' तय होते |
          कहीं बुढ़ापा करे मजूरी , कहीं भीख से घर पाले ,
          कहीं रहे 'वृद्धाश्रम' जा कर , कहीं 'अलग' डेरा डाले |

          देख-देख कर ये अँधियारे दिल रोया , आँखें रोईं ,
          चलो जगाएँ मानवता-ममता , जो शायद हैं सोईं |
          एक दीप 'आशा' का ले कर हमको भी चलना होगा ,
          जिससे-जैसे-जितना भी हो , तम को कम करना होगा |

          तम को कम करना होगा...तम को कम करना होगा.....||
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                       सर्वाधिकार सहित , स्व रचित रचना
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Saturday, 18 May 2013

मेरे मन में बसी छवि.......

      
     मैंने पुस्तक में पढ़ा --
     यशोदा माँ , कैसे अपने मोहन का साज रोज सजवाती हैं -
     घन्टों तक नहलाती हैं और घन्टों उसे सजाती हैं . . . . . . .
     मैं उबटन-अंजन, केसर-चंदन, तिलक-दिठौना क्या जानूँ ?
     मैंने धूल-धूसरित कान्हा की छवि नैनों बीच बसाई है - - - 
                         
     मैंने कवियों से सुना --
     यशोदा माँ , कैसे अपने मोहन को लोरी गा सुलवाती हैं -
     घन्टों पहरा देती हैं और सबको चुप रखवाती हैं . . . . . .
     मैं चंदन-पलना, मखमल-गादी, मोतियन-डोरी क्या जानूँ ?
     मन में , पैर अँगूठा मुख में - बड के पत्ते पर छवि छाई है - -
  
    मैंने मन्दिर में सुना --
    यशोदा माँ , कैसे अपने मोहन को मोहन-भोग खिलाती हैं ,
    घन्टों पकवान बनाती हैं फिर कर मनुहार खिलाती हैं . . . .
   मैं खीर-पूड़ी संग दधि-ओदन और मालपुआ-मधु क्या जानूँ ? 
   मुझको मटकी के माखन से लिपटे मुख की छवि मन भाई है - -

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                                                ( सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना )
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Sunday, 6 January 2013

विरह में - - - - - -

                                      

                    

                '' विरह में पीले पड़ गए पात ''
                                   *  *  *

           तन उपवन मन सींच न पाया ,
 
                  अन्तर-पट तक भीग न पाया ,
  
           सूखी धरा , घटा मुख ताके ,

                  बिरहिन का दुःख, बिरहिन जाया ,

           मन मुरझाया , तन झुलसाया ,

                  सुख ने छोड़ा साथ..........

           विरह में पीले पड़ गए पात...........!!

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                                      ( * सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना * )
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वासन्ती उल्लास . . . . !!!!

                                         
               
                      

                 वासन्ती उल्लास सजाएँ 
                                                                          *                                         
            लें नभ से जो नीर, सहेजें उर में -
                         और धरा बन जाएँ.......

           बीज सँवारें, करें अँकुरित ,
                  नव-पल्लव की बेल बढ़ाएँ......

          शक्ति लगाएँ , तन-मन वारें ,
                विकसित, पुष्पित कर फल पाएँ.....

         उपवन-उपवन फूलें महकें -
                खुशियों भरे रँग बरसाएँ.......

  वासन्ती उल्लास सजाएँ........वासन्ती उल्लास सजाएँ !

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                       सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना 
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दरख्तों की गिनती - - - - -

                          

                     forest and woodland photography
                   '' कहाँ तक दरख्तों की गिनती करूँ मैं ?''
                                  *  *  *
                न आवारा बादल की मस्ती-मल्हारें ,

                                न बूँदों की रिम-झिम न ठंडी फुहारें ,

                झड़े   फूल-पत्ते न कलियाँ न भँवरे ,

                                सभी चल दिए , सूनी डालें न संवरें ,

                कहाँ तक तनों के भरम को भरूँ मैं ?

                               कहाँ तक दरख्तों की गिनती करूँ मैं ?

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                                           सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना
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एक सागर की लहर दूजी से बोली - - - -

  A beach scene at Porto Katsiki in Greece, Lefkada, shot with a tilt and shift lens Stock Photo - 16931881                                 
           

ओ सखि.........!!


 


              सखि , मैं चन्दा देख बढ़ी........!!


                मैं तरंगिनी सागर-तनया ,

                           अपनी सब सीमाएँ जानूँ ;

               सतत् प्रवाही मेरा जीवन ,

                       पर अपनी मर्यादा मानूँ ;

               प्रेम-मगन , विरहिन , शीतल-तन -

                       लिये निहारूँ पन्थ पिया का ,

               मिलन-निशा की तिथि मन ही मन -

                       पूनम-रात गढ़ी..............

                सखि ! मैं चंदा देख बढ़ी . . . . . !

                       सखि ! मैं चंदा देख बढ़ी . . . . . !!
                             *    *    *    *

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                     सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना 
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प्रार्थना - - - - - -

                   प्रार्थना.........

               *  चलो प्रार्थना-दिवस मनाएँ  *

           नीले नभ सा विस्तृत हो मन ,

                    दिव्य धरा सा दानी जीवन ,

           जल सा शीतल - तृप्ति भरा तन ,

                    हरियाली सा पूरित कण-कण ,

           दूर जहाँ तक दृष्टि समाए -

                                       शान्त प्रकृति सा रूप सजाएँ -

           चलो , प्रार्थना दिवस मनाएँ.............!!
                                 
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                                           ( * सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना * )
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मन के दो रूप- - - - -

                                        
                    
                 


   नीर के  दो रूप - - -


नीर ने दो रूप पाए ....

 एक निर्मल सरल निष्छल , तरल गहराई लपेटे ,
           
 मन बने उस नीर जैसा - थाह में मोती समेटे ;
            
और दूजा रूप हिम का - दृढ़ विचारों सा जमे -

पार-दर्शी मन बने , तब  दोष कुछ रहने न पाए...

                     नीर ने दो रूप पाए !!

           
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                                            ( * सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना * )
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आत्म-बोध - - - - -


                                         




 खुद से खुद की बात -

                               


        करें जब खुद से खुद की बात -

          जितने ऊँचे पहुँच सकें हम ,

                          उतनी ही गहराई लाएँ ;

          नभ से नीला-पन पाएँ तो ,

                         जल के नीचे तल तक जाएँ ;

          झुक कर जब प्रतिबिम्ब निहारें -

                          निर्मल मन हो साथ.......

                करें जब खुद से खुद की बात !!
                        *    *    *    *    *

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                    सर्वाधिकार सहित , स्व-रचित रचना  
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